भरी दुपहरी में जब सभी लोग अपने घरों में सो रहे होते तब मैं घर के बाहर अपने भाई की पुरानी खराब पड़ी साईकिल के पास बैठी रहती और एक ही सपना देखती उस साईकिल की सवारी का, उसे चला पाने का। तब तक मुझे साईकिल चलाना कहां आता था। मैं सपना देखती थी ऐसे साईकिल चलाऊँगी, वैसे चलाऊँगी, कभी एक हाथ छोड़कर चलाऊँगी, कभी ढलान से उतारते हुए लाऊँगी और घर के बाहर लाकर रोकूँगी फिर जोर से आवाज़ लगाऊँगी " कुल्वेन्दर "! दरअसल भईया के दोस्त उसे ऐसे ही बुलाने आते जो कि मुझे बड़ा कूल लगता था। यह मेरे बचपन की उन सुनहरी यादों में से है जिन से उस बालसुलभ मन की याद हो आती है और एक हल्की सी स्माइल दे जाती है।
धन्यवाद
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