11/21/2013

टूटता मनोबल [लघुकथा]

वह पढाई से लेकर खेलकूद तक सब में  अच्छी थी। सब कहते यह एक दिन  हमारा नाम जरुर रोशन करेगी। कई दिन की बीमारी के  बाद वो स्कूल लौटी।विद्यालयी खेलों के लिए बच्चों को चुना जा रहा था। सभी को मैदान के अन्तिम  छोर तक दौड़कर  फिर से प्रवेश द्वार तक पहुँचने को कहा गया। वह कहती रही "मैं नहीं कर सकती।" "मैं  नहीं दौड़ पाऊँगी।" पर किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। मजबूरन उसे सबके साथ  दौड़ना ही पडा। वह अपनी सारी ताकत जुटाकर भी  मुश्किल से आधे रास्ते  तक ही दौड़ पाई थी कि सांस भरने  लगी,हिम्मत छूटती गई, कदम धीमे पडते चले गए। रही सही ताकत जुटाकर  जैसे तैसे चली जा रही थी। रोना तो जैसे अब आया तब आया। वह खुद से कहती रही "मैंने कहा था,मैं नहीं कर सकती। मैं नहीं दौड़ पाऊँगी।" मैदान के अन्तिम छोर तक  पहुँच कर  जब मुड़कर देखा तो पाया कि सब बहुत  पहले ही अपनी रेस पूरी कर चुके थे और वो सबसे पीछे छूट गई। वह रूआँसी थके  निराश कदमों से उस ओर लौटने लगी। 
कहते है डूबते हुए को तिनके का सहारा ही बहुत होता है,काश उस दिन एक टूटते हुए मनोबल को कोई बचा लेता।   
                                                                                                            

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